Tuesday 16 April 2019

दाग़

दाग़

जिस्म के बाज़ार का मेहज़ एक समान हूं मैं;
जो बस इस्तेमाल कर छोड़ दिया जाता है।

सफेद चादर पर लगे उस दाग़ सी पहचान है मेरी;
चाहे किसी की भी पनाह ले लूं,
हज़ार तोहमत लगा,
दर्ज़ा मुझे दाग़ का ही दिया जाता है।

ऐब इस जहां के सहते सहते,
  अब ये जिस्म हंसना भूल गया है,
प्यार से जब कोई थाम लेे हाथ ,
 वो एहसास कितना हसीन होता है,
   ये दिल वो एहसास भी खो चुका है,
लबों पर सुर्ख लाल हसीं है,
पर रूह मेरी मुस्कुराना भूल गई है।
आंखों में ये गहरा सुरमा रिझाता बहुत है,
पर ये आंखें मेरी सपने सजाना भूल गईं हैं।
सितारों के छांव में चाही थी ज़िन्दगी ,
 अब बेजान बिस्तर कि तरह ओरों की रात साजाती हूं,
गंदगी लोग अपनी छोड़ जाते हैं,
और दाग़ मैं कहलाती हूं।
- अवनिता

Thursday 21 June 2018

Embrace

The dusk embraces the dawn,
Contentment replaces the frown,
The Earth kisses the Sky,
The hue red turns high,
The Sun splits into countless stars,
The Moon cherishes her scars,
Serenity casts a magical spell,
Lively breeze breathes itself,
The tiny fire-flies;
Enchanting bulbs of nature,
Melody in the whispers of the nocturnal creature,
Where sunset marks a new beginning,
And Love offers to Trust, a Unison ring.

                                                             -Avnita



Thursday 29 March 2018

हस्ती

आसमान के बिना चाँद का होना मुनासिब नहीं ,
तो फिर,
कैसे मुक़म्मल होगी मेरी हस्ती , जो तू नहीं।
                                                 - अवनिता 

सिलसिला

तन्हाई में एक काफ़िला हूँ मैं ,
तेरी यादों का एक सिलसिला हूँ मैं।
                                            - अवनिता

ग़मों का कारवां

दुनिया का शोर भी ख़ामोश सा लगता है ,
जब ग़मों का कारवां दिल से हो के गुज़रता है।
                                    - अवनिता

ख्वाइश

ज़िन्दगी ख्वाईशों का दूसरा नाम है ,
सांसें बेवफ़ा हो सकतीं हैं ;
पर ख्वाईशें  ता-उम्र वफ़ा निभाती है।
और एक सच तो ये भी है ,
हर ख्वाइश हकीकत कहाँ बन पाती है।
                                             - अवनिता

मिट्टी

दे के अपनी सुबह ,
तेरी रातों को रोशन किया ,
गवां के खुद को मैंने ,
तेरी खुशियों का सौदा किया।
खर्चता रहा एहसासों को मैं ,
खरीदता रहा कुछ सपने ,
बिछा के अपनी रूह ,
समेटा ता रहा तुझको खुद में ,

अनजान था तेरे ख्यालों से मैं ,
बा-वफ़ा  माना था मुक़द्दर तुझे।

ना जानते थे ,
तेरी मंज़िल हम नहीं ,
होता जो इल्म ज़रा सा ,
ये जिस्म तो क्या ,
अपनी राख़  भी न आने देते तेरी राहों में कहीं।

ख़ुद को तेरी गिरफ्त में छोड़ के,
तुझको खुद से रिहा किया ,
मिटा दी तेरी हर मुश्किल ,
इस मिट्टी  के तन को मिट्टी  में मिला दिया।
                                                    - अवनिता